रायपुर:इस सृष्टि का वास्तव में कोई एक निश्चित रूप नहीं है। हमारी दृष्टि जैसी होती है वैसी ही सृष्टि होती है। यह अनेक लोगो का अनुभव है कि रात्रि के अन्धकार में जमीन में टेढी-मेढी पड़ी हुई रस्सी को सर्प समझकर लोग भयभीत हो जाते हैं और इसी प्रकार ठूठ को मनुष्य समझ लेते हैं पर जैसे ही प्रकाश होता है सर्प और ठूठ गायब हो जाते हैं। हमारी भ्रम दृष्टि थी इसलिए सर्प और ठूठ की सृष्टि हो गयी।
उक्त उद्गार उत्तराम्नाय ज्योतिषपीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती ‘1008’ ने चातुर्मास्य प्रवचन के अवसर पर चल रही श्रीमद्भागवत कथा के प्रसंग में सृष्टि कथा सुनाते हुए कही।उन्होंने कहा कि अज्ञान के कारण हमें यह संसार दिखता है परन्तु वास्तव में संसार है ही नहीं। इसीलिए इस संसार को असत् कहा गया है क्योंकि यह पहले भी नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा।
आगे कहा कि ब्रह्मा जी ने सृष्टि विस्तार के लिए बहुत प्रयत्न किए। भगवान् के उसी आदेश को तत्काल पालन करने की इच्छा से उनके मन में अपनी पुत्री के लिए मोह उत्पन्न हो गया पर मन में गलत विचार के आते ही उन्होंने इसे सार्वजनिक किया और फिर उसके बाद उन्होंने अपने उस शरीर का ही त्याग कर दिया। फिर उनको जब दूसरा शरीर मिला तो उस पवित्र शरीर में से वेद वेदांग आदि प्रकट हुए।
उन्होंने माया के सन्दर्भ में बताते हुए कहा कि माया महाठगिनी है। ये कब क्या किससे कैसे क्या करा देगी यह समझ से परे है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इससे बच नहीं पाए हैं। शङ्कराचार्य जी के प्रवचन के बाद धर्मशास्त्रपुराणेतिहासाचार्य पं राजेन्द्र शास्त्री , परमात्मानन्द ब्रह्मचारी एवं इंग्लैण्ड से आई रमणा देवी ने अपने विचार प्रस्तुत किए। शालू ने रमणा देवी के स्वागत में अपने विचार व्यक्त किए। जगद्गुरुकुलम् के छात्र प्रणव राजोरिया ने अंग्रेजी भाषा में भगवान् के महत्व को बताया। शाम्भवी नेमा ने मधुराष्टकम् गीत को प्रस्तुत किया।आज की कथा के यजमान राकेश नेमा आशीष नेमा एवं उनका परिवार रहा जिन्होंने पादुका पूजन किया।