रायपुर:आज दशहरा का दिन है याद आता है, जब हम सब दोस्त गांव से रायपुर पढ़ने आए थे । दशहरे की छुट्टी , खासकर दशहरे का दिन और रायपुर शहर का आसमान पतंग से पटा रहता था ।
चारो ओर से बच्चो की आवाज आती थी जल्दी काट बे जल्दी काट, ढील दे ढील दे ,अरे थोड़ा और ढील दे, खीच रे खीच , तोडा मार तोड़ा , कट गई ,लाल वाला कट गई और फिर मोहल्ले भर के बच्चे लंबे से डंडा, छोटा डंडा लेकर पतंग के पीछे दौड़ते रहते थे । एक दूसरे के घर में, छत में , आंगन में ,जहां जाते थे वहां घुस जाते थे,पतंग लूटने। कई बच्चे कोने में रस्सी में पत्थर बांध के खड़े रहते थे पतंग का मंजा जैसे ही नीचे आता मंजा में गिरगोट( रस्सी में पत्थर बंधा हुआ ) मंजा तोड़ देते थे ,
पतंग उड़ाते-लड़ते गिरने से हाथ पैर भी छील जाता था पर तुरंत कटे हुए स्थान पर या तो थूक लगा देते थे या किसी दूसरे से पेशाब करवा लेते थे और फिर उसी क्रम में लग जाते थे। इसी का नाम था बचपन आज यह सब विलुप्त हो गए हैं।
दशहरे के चार दिन पहले ही किसी से फ्यूज , लाईट, ट्यूबलाइट मांगते घूमते थे उसको कूट के इसके चूरा को सरेश डबकाकर और फिर बिजली के खाबो के बीच धागे बांधकर मंजा बनाने का काम चलता था सूखने के बाद चकरी तो बड़े लोगों का काम रहता था चकरी रहती नहीं थी लंबे से डंडे या जुगाड कर लाए कोई चकरी में घुमाकर गड्डी बनाते थे और अपने हाथ से बनाएं पतंग को लेकर निकल जाते थे किसी के छत में, छत नहीं मिले तो मैदान में , और कुछ नहीं मिले तो रोड के किनारे और चालू होता था पतंग उड़ाने का काम सारे दोस्त इसी में मस्त रहते थे कुछ लोगों का काम ही रहता था पतंग लूटने का जैसा ही आसमान में पतंग कटती थी हवा के जिस दिशा में वह पतंग कट के जाने लगता था सब दौड़ पढ़ते थे किसी के हाथ में मंजा लगता था तो किसी के हाथ में पतंग , कई बार तो इस लूटपाट के चक्कर में हथेली, उगलिया भी कट जाता था पर इसकी कोई चिंता नहीं रहती थी ।
आज मैं देखता हूं कि दशहरे में ना तो बच्चों को पतंग उड़ाने की चिंता है ना दोस्तों के साथ मस्ती की । नही कोई साथ घूमता पतंग की तैयारी तो कोई करता ही नहीं ।आज इसे देखकर लगता है कि हमारा ही बचपन निश्चित था निश्चल था और दोस्ती यारी का पर्याय था।