रायपुर:स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोतीलाल त्रिपाठी की आज जन्म शताब्दी है। उनका जन्म आज ही के दिन यानी 24 जुलाई 1923 में ग्राम धमनी (राजिम) में हुआ था, यह गांव अब गरियाबंद जिले में है। स्व पंडित मोतीलाल त्रिपाठी के दादाजी भुवनेश्वर प्रसाद तिवारी ‘बिरतिया’ ग्राम धमनी से बलौदाबाज़ार के पास ग्राम पलारी में आकर बस गए थे। पंडित मोतीलाल, पिता पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी और माता जामाबाई के मंझले बेटे थे। उनके पिता पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी पंडित सुंदरलाल शर्मा के सहयोगी थे। पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी स्वयं 1930 के जंगल सत्याग्रह के चलते नंदकुमार दानी के साथ अकोला जेल में रहे। 1932 में उन्हें 6 महीने की जेल हुई। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी के कारण भी उन्हें कारावास का दंड भोगना पड़ा था। पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी का स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्यारेलाल सिंह से घनिष्ठ संबंध था। पंडित त्रिपाठी को देशभक्ति का जज़्बा अपने पिता से ही मिला। जब वह सिर्फ़ दस साल के थे, तब उन्होंने पलारी से गुजर रही यात्रा के दौरान अपनी माता जामाबाई के हाथों से कते सूत की गुंडी (माला) पहनाकर महात्मा गांधी का स्वागत किया था। वो जगह आज ग्राम पलारी में गांधी चौक के नाम से जानी जाती है। उस समय गांधीजी दूसरी बार छत्तीसगढ़ के दौरे पर थे। अछूतोध्दार का उनका वह देशव्यापी दौरा छत्तीसगढ़ से ही आरंभ हुआ था। बापू रायपुर से सारागांव, खरोरा, पलारी होते हुए 26 नवंबर 1933 को बलौदाबाजार पहुंचे थे।
बालक मोतीलाल की प्रारंभिक शिक्षा पलारी में ही हुई। बाद में पं. त्रिपाठी रायपुर के जैतूसाव मठ में रहकर पढ़े, तब जैतूसाव मठ राष्ट्रीय आंदोलनों का गढ़ बना हुआ था। उन्होंने हाईस्कूल की शिक्षा रायपुर के सेंटपॉल स्कूल से प्राप्त की। रायपुर में उनके अभिभावक महंत लक्ष्मीनारायण दास थे। मोतीलाल त्रिपाठी ने 1 मई सन् 1939 से 7 मई तक रायपुर के राष्ट्रीय विद्यालय में जिला कांग्रेस कमेटी द्वारा आयोजित सत्याग्रह प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया था। इसके संयोजक डॉ खूबचंद बघेल थे।
5 जनवरी 1941 को देश में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दूसरे चरण की शुरुआत हुई। 11 फरवरी को पंडित मोतीलाल सत्याग्रही चुने गए। उन्होंने रायपुर जिले के गांव-गांव में पदयात्रा कर आंदोलन का प्रचार किया। रायपुर, धमतरी, बलौदाबाजार होते हुए त्रिपाठीजी सत्याग्रहियों के जत्थे के साथ बिलासपुर पहुंचे, जहां भुंडाभरारी गांव में सत्याग्रह किया गया। पुलिस ने सभी सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया। बिलासपुर की अदालत ने मोतीलाल त्रिपाठी, महंत सुखचैनदास, झाड़ूराम चंद्रवंशी (ग्राम जरवे) और रामस्वरूप दास (अकलतरा) को तीन साल की सजा सुनाई थी। 12 अप्रैल 1941 को सत्याग्रहियों को नागपुर जेल भेज दिया गया। 5 दिसंबर 1941 को गांधीजी के समझौते के अनुसार राजनीतिक बंदियों को रिहा किया गया।
रिहा होने के पश्चात मोतीलाल त्रिपाठी ने पंडित रविशंकर शुक्ल और महंत लक्ष्मीनारायण दास के सुझाव पर खादी भंडार रायपुर में अपनी सेवाएं दी। पंडित त्रिपाठी जिला चांदा ( तत्कालीन महाराष्ट्र) से चरखा संघ से प्रशिक्षण प्राप्त कर 27 जुलाई 1942 को नरसिंहपुर खादी भंडार में नियुक्त हुए, जहां वे लालमणि तिवारी और बिलखनारायण अग्रवाल से मिले। इसी बीच 9 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का ऐलान हो गया। तब वहां नरसिंहपुर में खादी भंडार ही आंदोलन का प्रमुख केंद्र था, पंडित त्रिपाठी भी इस आंदोलन में शामिल हो गए। उनके उपर 30 सितंबर को वारंट भी निकल गया। ऐसे में नरसिंहपुर पुलिस ने खादी भंडार की तलाशी ली और त्रिपाठीजी की पेटी व कागजात भी जब्त कर लिए थे। पुलिस को पं. त्रिपाठी की सक्रियता की लगातार जानकारी मिल रही थी। पं. त्रिपाठी भूमिगत हो गए और रायपुर आ गए। उस समय स्वतंत्रता सेनानी वामन राव लाखे, ठाकुर प्यारेलाल सिंह और लक्ष्मण राव उद्गीरकर रायपुर में भूमिगत आंदोलन का संचालन कर रहे थे। लाखेजी पर्चे का मजमून बोलते थे, ठाकुर प्यारेलाल सिंह उसे लिखते थे और रात में साइक्लोस्टाइल कर परचे बांटने का काम होता था।
26 जनवरी 1943 को परचे बांटने का काम सुंदरलाल उपाध्याय, दामोदर त्रिपाठी, मोतीलाल त्रिपाठी और रामचरण साहू को सौंपा गया। उन सभी को सदर बाजार स्थित गिरधर भवन के सामने परचे बांटते गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें 6 महीने की सजा हुई। 14 जुलाई को रिहाई हुई। 1 अक्टूबर 1943 को मोतीलाल अपने गांव पलारी गए। लेकिन 2 अक्टूबर को ही मुखबिर की सूचना पर पहुंचे नरसिंहपुर के कॉन्स्टेबल उन्हें फरार होने के कारण गिरफ्तार कर नरसिंहपुर ले गए। वहां से वे 31 दिसंबर 1943 को रिहा हुए। त्रिपाठीजी 1945 में गांधीजी के वर्धा स्थित आश्रम में 4 महीने रहे। वर्धा आश्रम की पत्रिका में त्रिपाठीजी की हस्तलिपि भी होती थी। तब गांधीजी उनके सुडौल अक्षरों की बड़ी तारीफें किया करते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान त्रिपाठी जी आज़ादी के तराने लिखते थे और सस्वर पाठ भी किया करते थे, उनकी रचनाएं छत्तीसगढ़ में प्रसिध्द थीं।
रह चुके जालिम बहुत दिन
अब हुकुमत छोड़ दो
और–
सुलग चुकी है आग जिगर में, उसे बुझाना मुश्किल है
जैसे गीत सेनानियों के लिए प्रेरणा बन गए थे। वंदेमातरम और रणभेरी बज चुकी, उठो वीरवर पहनो केसरिया बाना…उनके पसंदीदा गीत थे, जिन्हें वे ज़ीवनपर्यन्त ओजस्वी स्वर में गुनगुनाते रहे।
पं. त्रिपाठी छत्तीसगढ़ में चले रियासत विलीनीकरण आंदोलन से भी जुड़े रहे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह, श्यामनारायण कश्मीरी और प्रोफेसर जयनारायण पांडेय इस आंदोलन के मार्गदर्शक थे। पं. त्रिपाठी 1946 में पं. रविशंकर शुक्ल के महाकौशल अखबार में उपसंपादक के रूप में जुड़े। तब उसके संपादक स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी थे। स्व. त्रिवेदीजी ने कहीं कहा था- “मुझे नहीं मालूम था कि मोतीलाल की औपचारिक शिक्षा का स्तर क्या था, लेकिन महाकौशल के प्रकाशन में वे पूरी दक्षता के साथ कार्य करते थे। तभी मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र के साथ ही सहकारिता के क्षेत्र में उनकी गहन रुचि को जान लिया था।” महाकौशल के अलावा त्रिपाठीजी जनमत, अधिकार, उदय, मिलाप आदि पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने अस्सी के दशक में रायपुर जिला सहकारिता संघ की पत्रिका “सहयोग-दर्शन” का संपादन भी 1983 तक किया।
आजादी के बाद 1948 में महाकौशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सभापति गोविंद दास ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेने के लिए त्रिपाठीजी को प्रशस्ति पत्र के रूप में ताम्रपत्र भेंट किया। 15 अगस्त 1972 को स्वतंत्रता आंदोलन में उनके स्मरणीय योगदान के लिए राष्ट्र की ओर से ताम्रपत्र भेंट कर सम्मानित किया गया। पं. त्रिपाठी को स्वतंत्रता के पश्चात परिजनों के दबाव के कारण 1951 में विवाह करना ही पड़ा। उनका विवाह ग्राम मोहदी निवासी पंडित अनंतलाल शुक्ला की सबसे छोटी बेटी रमादेवी के साथ हुआ। विवाह के बाद वे खादी के प्रचार-प्रसार के लिए हैदराबाद गए, वहां से 1960 में लौटे और दो साल घर में रहकर फिर 1962 में खादी प्रचार के ही काम से शहडोल गए, जहां 1967 तक रहे।
1967 से रायपुर को वह अपनी कर्मस्थली बनाकर समाजसेवा के रचनात्मक कार्यों में संलग्न हो गए। पं. त्रिपाठी कई संस्थाओं-संगठनों से जुड़े। लेकिन उनका मुख्य कार्य था स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारजनों के सम्मान निधि और अन्य परेशानियों के निराकरण के लिए शासन-प्रशासन से लड़ाई और ख़तो-कि़ताबत करना। इसी एक काम ने उन्हें छत्तीसगढ़ ही नहीं मध्यप्रदेश में भी सभी सेनानियों और उनके परिवारजनों के बीच लोकप्रिय और सच्चा हितैषी बना दिया। उनके पास सेनानियों के संबंध में प्रामाणिक सूचनाएं होती थीं, इसलिए मप्र शासन और फिर छत्तीसगढ़ शासन ने विभिन्न कमेटियों में उन्हें नामांकित किया, साथ ही छत्तीसगढ़ अंचल के किसी सेनानी के संबंध में जानकारी या स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित कोई जानकारी लेने के लिए छत्तीसगढ़ का पुरा एवं कलातत्व विभाग उनसे ही संपर्क करता था।
खादी एवं गांधी को अपना सर्वस्व मान चुके पं.त्रिपाठी स्वतंत्रता प्राप्ति तक एवं उसके बाद भी रायपुर के विचारकों के अग्र पंक्ति में रहकर गांधीजी की विचारधारा को पुष्पित व पल्लवित करते रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी नेतृत्व क्षमता और सहृदयता के कारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नेतृत्व छत्तीसगढ़ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संगठन के महामंत्री के रूप में करते रहे और उनके सुख-दुख में सदैव साथ रहे। उन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में भी सक्रिय योगदान दिया, वे इस आंदोलन के अंतिम संयोजक रहे। पं. त्रिपाठी ताउम्र पैदल ही चलकर कार वालों को भी मात देते रहे, यह रायपुर शहर में उनकी पहचान भी बन गई थी।
पं. त्रिपाठी के योगदान की चर्चा राजधानी रायपुर के शहीद स्मारक का जिक्र किए बिना अधूरी रहेगी। 1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक के सैकड़ों सेनानियों की स्मृति इस भवन में महसूस की जा सकती है। शहीद स्मारक भवन बनाने की आधारशिला साल 1980 में अविभाजित मध्यप्रदेश के तत्कालीन गवर्नर श्री सीएम पुनाचा ने रखी थी। उस समय इसके निर्माण में एक करोड़, 18 लाख रुपए का खर्च अनुमानित था। तब निर्माण समिति में स्वतंत्रता सेनानी कमल नारायण शर्मा, हरि ठाकुर, नारायण राव अंबिलकर, नारायण दास राठौर, मोतीलाल त्रिपाठी, धनीराम वर्मा सहित अन्य भी थे। इसी तरह गांधीजी के प्रति उनके और उनके सहयोगियों के भक्तिभाव को इसी बात से समझा जा सकता है कि ताउम्र हर साल 2 अक्टूबर गांधी जन्मतिथि और 30 जनवरी पुण्यतिथि को पं. त्रिपाठी और पं. कमलनारायण शर्मा रायपुर के आजाद चौक स्थित गांधी प्रतिमा के (पुराने) आंगन को धोने के साथ ही प्रतिमा को नहलाते थे, फिर वहां दरी बिछाकर गांधीजी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए रे, पीर पराई जाने रे… का सस्वर पाठ करते थे।
अगस्त क्रांति की वर्षगांठ के मौके पर राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों 9 अगस्त 2004 में दूसरी दफ़े सम्मान के लिए आमंत्रित पं. त्रिपाठी का स्वास्थ्य अचानक नई दिल्ली में खराब हो गया था। उन्हें दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया, 12 अगस्त को उन्हें रायपुर लाया गया। किडनी में संक्रमण के कारण करीब ढाई महीने तक जूझने के बाद आखिरकार 19 अक्टूबर 2004 को आज़ादी के इस सिपाही ने हमेशा के लिए आंखें मूंद ली। आजादी के दीवाने पं. मोतीलाल त्रिपाठी ने जन्म से आजादी तक अपने 24 साल के जीवन में अलग-अलग समयावधि में कुल एक साल 6 महीने का कारावास भोगा, जिसका उल्लेख अविभाजित मध्यप्रदेश के भाषा संचालनालय द्वारा प्रकाशित मध्यप्रदेश के ‘स्वतंत्रता संग्राम सैनिक’ किताब के तीसरे खंड में है। इसी खंड में उनके पिता स्व पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी का भी उल्लेख है।
पंडित मोतीलाल त्रिपाठी की संतानें आज अपने-अपने क्षेत्रों में उनका नाम रोशन कर रही हैं। उनके बड़े पुत्र डॉ. अखिलेश त्रिपाठी छत्तीसगढ़ शासन के स्वास्थ्य विभाग से उपसंचालक के पद से रिटायर हुए हैं। दूसरे पुत्र राजेश परिवहन विभाग से सेवानिवृत हो चुके हैं, तीसरे धनंजय जीवन बीमा के क्षेत्र में हैं और चौथे पुत्र संजीत उनकी पत्रकारिता की परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। उनकी बिटिया डॉ. नीरजा शर्मा अपनी खुद की प्रैक्टिस कर रही हैं।